परिचय


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शनिवार, 30 अगस्त 2014

भास्कराचार्य



       प्राचीन भारत के प्रसिद्द गणितज्ञों में गणितीय ग्रंथ लीलावती  के रचयिता भास्कराचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है | लीलावती वास्तव में भास्कराचार्य रचित ग्रंथ सिद्धांत-शिरोमणि  का ही एक भाग है | यह ग्रंथ गणित और ज्योतिष विषय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है और यह संस्कृत भाषा में काव्यात्मक शैली में श्लोकबद्ध है | इस ग्रंथ में वर्णित नियमों की व्याख्या करने के लिए भास्कराचार्य ने गद्य शैली में वासना  नामक एक ग्रंथ लिखा सिद्धांत-शिरोमणि  के चार भाग हैं - लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय और ग्रहगणित | लीलावती में अंकगणित (पाटीगणित) पर, बीजगणित में बीजगणित पर, गोलाध्याय में खगोल पर और ग्रहगणित में ग्रहों की गति पर चर्चा की गई है | सिद्धांत-शिरोमणि के अतिरिक्त भास्कराचार्य ने एक और ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना की थी, जिसमें पंचांग बनाने की विधियों पर चर्चा की गयी है | लीलावती पर कई टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं और देश-विदेश की कई भाषाओँ में अनुवाद किये गए हैं |

जीवनवृत्त :
       भास्कराचार्य के जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है | कुछ – कुछ  जानकारी उनके श्लोकों से मिलती हैं | गोलाध्याये प्रश्नाध्याय, श्लोक 58 में भास्कराचार्य लिखते हैं :
रसगुणपूर्णमही समशकनृपसमयेऽभवन्मोत्पत्तिः |
रसगुणवर्षेण  मया  सिद्धांतशिरोमणि  रचितः ||
अर्थ : शक – संवत 1036 में मेरा जन्म हुआ और छत्तीस साल की आयु में मैंने सिद्धांतशिरोमणि की रचना की |
अतः उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि भास्कराचार्य का जन्म शक – संवत 1036, अर्थात ईस्वी संख्या 1114 में हुआ था और उन्होंने 36 वर्ष की आयु में शक संवत 1072, अर्थात ईस्वी संख्या 1150 में लीलावती की रचना की थी | पुनः गोलाध्याये  प्रश्नाध्याय, श्लोक 61 में वे लिखते हैं :
आसीत्   सह्यकुलाचलाश्रितपुरे   त्रैविद्यविद्व्ज्जने |
नानासज्जनधाम्नि विज्जडविडे शांडिल्यगोत्रो द्विजः ||

इस श्लोक के अनुसार भास्कराचार्य शांडिल्य गोत्र के थे और महाराष्ट्र के सह्याद्रि क्षेत्र के तत्कालीन विज्जलविड नामक स्थान के निवासी थे | लेकिन विद्वानों ने इस विज्जलविड की भौगोलिक स्थिति का प्रामाणिक निर्धारण नहीं कर पाया है | डॉ. भाऊ दाजी (1822 – 1874 ई.) ने महाराष्ट्र के चालीसगाँव से करीब 16 किलोमीटर दूर पाटण गाँव के एक मंदिर में एक शिलालेख की खोज की थी | इस शिलालेख के अनुसार भास्कराचार्य के पिता का नाम महेश्वर था और उन्हीं से उन्होंने गणित, ज्योतिष, वेद, काव्य, व्याकरण आदि की शिक्षा प्राप्त की थी | भास्कराचार्य के देहांत के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती | उन्होंने अपने ग्रंथ करण-कुतूहल की रचना 69 वर्ष की आयु में 1183 ई. में की थी | इससे स्पष्ट है कि भास्कराचार्य को लम्बी आयु मिली थी | उन्होंने गोलाध्याय में ऋतुओं का सरस वर्णन किया है जिससे पता चलता है कि वे गणितज्ञ के साथ – साथ एक उच्च कोटि के कवि भी थे |

भास्कराचार्य का गणित :
       भास्कराचार्य की कृतियों में लीलावती सर्वाधिक प्रसिद्द हुई | शताब्दियों तक इस ग्रंथ का उपयोग पाठ्यपुस्तक के रूप में होता रहा | इस पर कई टीकाएँ लिखी गईं और विश्व की कई भाषाओँ में इसका अनुवाद किया गया | अकबर के आदेश से फैजी ने 1587 ई. में इसका फ़ारसी में अनुवाद किया | शाहजहाँ के दरबार के अताउल्लाह रसीदी ने 1634 ई. में भास्कराचार्य के बीजगणित का फ़ारसी में अनुवाद किया | ईस्ट इण्डिया कंपनी के अधिकारी एडवर्ड स्ट्रेची ने 1813 ई. में पहली बार लीलावती का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया | परन्तु लीलावती का मूल संस्कृत से अंग्रेजी में पहली बार प्रामाणिक अनुवाद हेनरी थॉमस कोलब्रूक ने 1817 ई. में किया | भास्कराचार्य के ग्रंथों के कई हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध हैं |  लीलावती पाटीगणित अर्थात अंकगणित की पुस्तक है | इसमें 13 प्रकरण हैं | आरंभ में गणेश की वंदना है | भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि किसी भी शुभ कार्य या अनुष्ठान के पहले गणेश की पूजा और वंदना की जाती है | ऐसे मान्यता है कि इससे कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण होता है | इस ग्रंथ के शेष भाग में सारणियों, संख्या-प्रणाली, अष्ट परिकर्म, भिन्न, शून्य, त्रैराशिक, श्रेढ़ी, क्षेत्रमिति, चिति (ढेरी), क्रकच (लकड़ी चीरना), छाया, कुट्टक (अनिधार्य समीकरण) और अंकपाश (क्रमचय – संचय) इत्यादि की चर्चा की गयी है |
       भास्कराचार्य ने लीलावती और बीजगणित में शून्य की संकल्पना का पहले के गणितज्ञों की अपेक्षा अधिक व्यापक विवेचन किया है | उन्होंने शून्य को परमाल्प संख्या माना है | उनके अनुसार, किसी संख्या को शून्य से भाग देने पर ख-हर (अनंत) प्राप्त होता है | अर्थात,
\[\frac{a}{0} = \infty \]|
       बीजगणित के निम्लिखित श्लोक से पता चलता है कि उन्हें अनंत की अवधारणा का अच्छा ज्ञान था :
अस्मिन् विकारः खहरे  न  राशावपि प्रविष्टेष्वपि निःसृतेषु |
बहुष्वपि स्याल्लय सृष्टिकालेऽनन्तेऽच्युते भूतगणेषु यद्वत् ||
अर्थ : जिस प्रकार अनंत ईश्वर में प्रलय के समय बहुत से भूतगणों (जीवों) का प्रवेश होने से या सृष्टि के समय उनके निकल जाने से कोई विकार नहीं होता, उसी प्रकार ख-हर (शून्य हर वाली) राशि में बहुत बड़ी संख्या जोड़ने या घटने पर कोई परिवर्तन नहीं होता | अर्थात,
\[ \infty \pm a = \infty \]|
       उन्होंने ब्रह्मगुप्त कथन, “शून्य को शून्य से भाग देने पर शून्य मिलता है”, को संशोधित किया | उन्होंने लिखा – “यदि किसी संख्या का गुणक शून्य हों  और हर भी शून्य हों, तो समझना चाहिए कि उस संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ |” अर्थात,
\[\frac{a \times 0}{0} = a \]|
वास्तव में यह कथन भी गणितीय रूप से शुद्ध नहीं है | परन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें आधुनिक गणित की निम्नलिखित संकल्पना की जानकारी थी :
\[\lim{x \to 0 }\frac{a \times x}{x} = a \] |
       भास्कराचार्य ने क्रमचय – संचय को अंकपाश संबोधित किया है और इसपर आधारित उदाहरण भी दिए हैं | जैनों ने इसे विकल्प और भंग से संबोधित किया है |  इसी प्रकार, उन्होंने श्रेढियों के लिए नियम के साथ कई उदाहरण दिए हैं | क्षेत्रमिति के प्रकरण में भास्कराचार्य ने समकोण त्रिभुज पर आधारित कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं |  उन्होंने बीजगणित में सरल समीकरणों, वर्ग समीकरणों, करणियों, अनिधार्य समीकरणों इत्यादि का विस्तृत विवेचन किया है | बीजगणित में केवल एक अज्ञात राशि के लिए यावत् – तावत् (जितना हो उतना)  और एक से अधिक अज्ञात राशियों के लिए रंगों के नामों के प्रथमाक्षरों का प्रयोग किया जाता था | भास्कर ने वर्ग समीकरण का व्यापक विवेचन किया है | अनिधार्य समीकरण की नींव आर्यभट ने रखी थी और कालांतर में भारतीय गणितज्ञ इस विषय में बहुत आगे बढ़ गए थे | इस दिशा में ब्रह्मगुप्त का बहुत बड़ा योगदान है | भास्कराचार्य ने इस विषय को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया था | भास्कराचार्य ने अनिधार्य वर्ग समीकरण $ क य^२ + १ = र^२ $, जहाँ $ क $ एक अवर्ग पूर्णांक है, का विस्तृत विवेचन बीजगणित के वर्ग-प्रकृति अध्याय में किया है | इस समीकरण को हल करने की उन्होंने एक मौलिक विधि दी है, जिसे चक्रवाल विधि कहा जाता है | इस विधि का वर्णन उन्होंने चक्रवाल अध्याय में किया है | यूरोपीय गणितज्ञों ने इस संकल्पना की खोज 500 वर्षों के बाद की | बीजगणित के अध्ययन में भारतीय गणितज्ञ यूरोपीय गणितज्ञों से काफी आगे थे |
       लीलावती के क्षेत्र – व्यवहार प्रकरण में भास्कराचार्य ने समकोण त्रिभुजों पर प्रश्न, त्रिभुजों तथा चतुर्भुजों के क्षेत्रफल, पाई ($ \pi $) का मान और गोले के ताल और आयतन के बारे में जानकारी दी है | पाई ($ \pi $) के मान के लिए उन्होंने निम्नलिखित श्लोक दिया है :
व्यासे भनन्दाग्नि (3927) हते  विभक्ते |
खबाणसूर्यैः (1250)  परिधिस्तु  सूक्ष्मः |
द्वाविंशति (22) घ्ने विहृतेऽथ शैलैः (7) |
स्थूलोऽथवा   स्याद्व्यवहार    योग्यः ||
अर्थात,
$ \pi $ का सूक्ष्म मान = $\frac{3927}{1250}$ और $ \pi $ का स्थूल मान = $\frac{22}{7}$ |
       भास्कराचार्य ने वृत्त के क्षेत्रफल, गोले के तल तथा गोले के आयतन के लिए निम्नलिखित परिणाम दिए हैं :
वृत्त का क्षेत्रफल = परिधि $\times \frac{1}{4}$(व्यास),
गोले का तल  = $4 \times$ वृत्त का क्षेत्रफल,
और
गोले का आयतन = $\frac{1}{6}\times$ (गोले का तल)(व्यास) |
       प्राचीन भारत में त्रिकोणमिति का विकास ज्योतिष के साथ हुआ है | भास्कराचार्य ने सिद्धांत – शिरोमणि के गोलाध्याय में इससे संबंधित कुछ उपयोगी सूत्र दिए हैं | गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में भास्कराचार्य ने गोले का क्षेत्रफल तथा आयतन ज्ञात करने के लिए समाकलन गणित का प्रयोग किया है, जिसकी पुनर्खोज न्यूटन और लेब्नीज़ ने लगभग 500 वर्षों के बाद की | गोले का क्षेत्रफल ज्ञात करने के लिए उन्होंने उसके सतह पर छोटे – छोटे समान्तर वृत्त खींचकर अंत में समाकलन से क्षेत्रफल ज्ञात किया | एक अन्य विधि में वे सतह को याम्योत्तर रेखाओं से छोटी – छोटी फाँको में बाँटकर समाकलन से क्षेत्रफल ज्ञात करते हैं | इसी प्रकार गोले का आयतन ज्ञात करने के लिए वे उसमें छोटे –छोटे पिरामीड सथपित करते हैं | अतः समाकलन गणित की नींव भारतीय गणितज्ञों के द्वारा रखी गयी थी, न कि पाश्चात्य गणितज्ञों के द्वारा |
       ग्रहों की दैनिक गति को ठीक ठीक जानने के लिए भास्कराचार्य ने दिन को छोटे – छोटे कालमानों में विभाजित कर तात्कालिक गति की अवधारणा प्रस्तुत की है, जिसका समुचित विकास सीमा की अवधारणा से ही संभव था | भास्कराचार्य को गुरुत्वाकर्षण का भी समुचित ज्ञान था | गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वे लिखते हैं – “मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रा वत वस्तुशक्तयः”, अर्थात पृथ्वी अचल यानि निराधार है | वे आगे लिखते हैं :
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् ख्स्थं गुरू स्वाभिमुखं स्वशक्त्या |
आकृष्यते  तत्प्ततीव  भाति  समेसमन्तात्  क्व  पतत्वियं  खे ||
अर्थात, पृथ्वी में आकर्षण – शक्ति है | पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है | आकर्षण के कारण यह गिरती – सी लगती है | मगर जब यह चारों ओर का आकाश निराधार है, तो फिर यह पृथ्वी क्यों नहीं निराधार हो सकती ?
       बाद के भारतीय गणितज्ञों पर भास्कराचार्य का गहरा प्रभाव पड़ा | भास्कराचार्य के बाद गणित में ज्यादातर टीकाएँ ही लिखी गईं | परन्तु केरल में गणितीय अनुसंधान जारी रहा |

भारतीय भाषाओँ में भास्कराचार्य से संबंधित पुस्तकें :

  1. भास्कराचार्य, लीलावती, टिप्पणियों सहित संपादन : राधावल्लभ, कलकत्ता 1913 |
  2. भास्कराचार्य, लीलावती, कोलब्रूक के अंग्रेजी अनुवाद सहित, टिप्पणियाँ : हारानंद बनर्जी, द्वितीय संस्करण, कलकत्ता 1927 |
  3. भास्कराचार्य, सिद्धांतशिरोमणि (गणिताध्याय, गोलाध्याय), वासनाभाष्यसहित, व्याख्या : बापूदेव शास्त्री, काशी 1913 |
  4. भास्कराचार्य, बीजगणितम्, टीका : राधावल्लभ, कलकत्ता, 1917 |
  5. श्याम मराठे, भारतीय गणितींची चरित्रे (मराठी), नागपुर 1981 |
  6. शंकर बालकृष्ण दीक्षित, भारतीय ज्योतिष (द्वितीय हिंदी संस्करण), लखनऊ 1963 |
  7.  ब. ल. उपाध्याय, प्राचीन भारतीय गणित, नई दिल्ली 1971 |
  8. दत्त और सिंह, हिंदू गणितशास्त्र का इतिहास, भाग-१, अनुवाद : कृपाशंकर शुक्ल, लखनऊ 1956 |
  9. गुणाकर मुळे, भास्कराचार्य, नई दिल्ली 1961 |
संदर्भ ग्रंथ :
[1] गुणाकर मुळे, संसार के महान गणितज्ञ, अध्याय : भास्कराचार्य, पृष्ठ संख्या ८७-८८, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली २०१४ 

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